आयुर्वेद

आयुर्वेद शब्द सुनते ही समुद्र मंथन से उत्पन्न हाथ में अमृत कलश लिये भगवान धन्वन्तरि सहित महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत, महर्षि आत्रेय और अग्निवेष, वागभट्ट आदि का चित्र आँखों के सामने उमर कर आ जाता है। जिन्होंने मानव मात्र के कल्याण के लिये अनन्त जडी-बूटियों को खोजा, प्रयोग किया और समाज को स्वस्थ रखने के लिये उसे अपने उत्तराधिकारियों के माध्यम से हमें सौंप दिया।

आयुर्वेद की परिभाषा

“अष्टांग हृदय” में कुछ इस प्रकार कहा गया है-” तदायुर्वेद यतीत्यायुर्वेदः कि जो आयु का ज्ञान कराता है उसे आयुर्वेद कहा जाता है। आयुर्वेद शब्द आयुष+वेद, इन दो शब्दों से मिलकर बना है। आयुष का अर्थ है- ‘जीवन’ और वेद का अर्थ है-ज्ञान-विज्ञान। इस भाँति आयुर्वेद का अर्थ हुआ-जीवन से संबंधित विज्ञान ।

आयुर्वेद की महत्ता

सामान्यतया आयुर्वेद की महत्ता और उपयोगिता के बारे में प्रश्न

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प्रस्तुत है “किमार्थमायुर्वेदः” अर्थात आयुर्वेद का उद्देश्य क्या है? इसलिए, चरक संहिता में कहा गया है, “प्रयोजन चास्य स्वस्थस्य स्वस्थ्यरक्षणमतुरस्य विकार प्रशमन च” अर्थात आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और बीमार व्यक्ति के रोग को दूर करना है। ध्यान देने वाली बात यह है कि आयुर्वेद का उद्देश्य पैसा कमाना और वाहवाही लूटना नहीं बल्कि प्राणियों के प्रति दया और दया का भाव रखना है।

रोगों का दोनों पक्षों पर प्रभाव

आयुर्वेद की मान्यतानुसार कोई भी रोग केवल शारीरिक अथवा मानसिक नहीं हो सकता। शारीरिक रोगों का मन पर और मानसिक रोगों का कुप्रभाव शरीर पर होता है। अतः किसी भी रोग की चिकित्सा करते समय मन और शरीर दोनों को सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता।

स्वस्थ शरीर के उपस्तम्भ

शरीर के स्वास्थ्य को स्थिर, सुदृढ़ और उत्तम बनाये रखने के लिये आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य ये तीन उपस्तम्भ हैं। जिस प्रकार शरीर को बनाये रखने के लिये ये महत्वपूर्ण कारक हैं वैसे ही “धी धृति स्मृति विभृष्टः कर्मयत कुरुतेऽशुभम् । प्रज्ञापराधं तं विद्यात सर्वदोष प्रकोपणम्” । बुद्धि, धैर्य और स्मृति के नष्ट हो जाने पर मनुष्य जब अशुभ कर्म करता है तब सभी शारीरिक और मानसिक दोष प्रकुपित हो जाते हैं। अशुभ कर्मों को प्रज्ञापराध कहा जाता है।

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